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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 66 
हस्तिनापुर के अंत:पुर में सम्राट ययाति के "आखेट" के कार्यक्रम की चर्चा जोरों पर थी । राजकुमारी शर्मिष्ठा को देखने जा रहे हैं, ऐसी बात तो कही नहीं जा सकती थी , इसलिए "मृगया" की बात का सहारा लिया गया । राजे महाराजे मृगया के लिए जाते ही रहे हैं , इसमें कोई नई बात नहीं थी । सम्राट ययाति भी मृगया के लिए जा रहे हैं, सबने इस पर विश्वास कर लिया था । अंत:पुर में सम्राट के "मृगया" पर जाने के लिए विभिन्न प्रकार की तैयारियां होने लगीं । कोई भांति भांति के व्यंजन बनाने में व्यस्त था तो कोई आयुधों की सार संभाल करने में व्यस्त था । सेना की एक छोटी टुकड़ी भी तैयार कर ली गई थी सम्राटके साथ चलने के लिए । सम्राट की सुरक्षा अति आवश्यक थी । वैसे तो किसी में इतना साहस नहीं था कि वह सम्राट के समक्ष आंख उठाकर भी देख ले । किन्तु समय का कोई पता नहीं होता है , कब क्या हो जाये, कौन जाने ? इसलिए कुछ चुनिन्दे सैनिकों को सम्राट की सुरक्षा का पर्याप्त प्रशिक्षण भी दिया जा रहा था । 

महारानी अशोक सुन्दरी घड़ी घड़ी में ययाति के पास आती और मृगया से संबंधित कुछ न कुछ निर्देश देकर चली जाती थी । मां का मन सदैव आशंकाओं से परिपूर्ण रहता है । और मृगया के लिए जाते समय तो और भी अधिक शंकाग्रस्त हो जाता है । "मृगया" करने के लिए "सघन वन" में जाना होगा और वन में तो व्याघ्र, सिंह जैसे हिंस्र जीव भी होते हैं । जरा सी असावधानी बड़ी दुर्घटनाओं को आमंत्रित कर लेती है इसलिए अशोक सुन्दरी ययाति को लगातार निर्देश दिये जा रही थीं । उन्होंने सयाति और अयाति में से किसी एक को साथ ले जाने के लिए बहुत कहा किन्तु ययाति ने यह कहकर मना कर दिया कि "जो व्यक्ति ध्वनि भेद बाण चला सकता है उसे व्याघ्र जैसे तुच्छ जीव का भय नहीं होना चाहिए" । यदि सयाति और अयाति में से किसी एक को भी साथ ले लिया तो शर्मिष्ठा को देखने की योजना खटाई में पड़ जायेगी । अत: वे दोनों एक रथ पर सवार होकर मृगया के लिए निकल गये । सेना को उप सेनापति के नेतृत्व में थोड़ा पीछे रहकर चलने के लिए कह दिया गया । 

राजशेखर सम्राट ययाति से मनोविनोद करते हुए उनके रथ पर उनके साथ चल रहे थे । वे रास्ते में सम्राट को शर्मिष्ठा के बारे में अपनी रचनाओं से बता रहे थे कि किस प्रकार मेघ भी शर्मिष्ठा के घने केशों से अंबु लेने को आतुर रहते हैं । पवन उसके तन की गंध ग्रहण करने को व्याकुल रहती है । किरण शर्मिष्ठा के मुख की कांति से ईर्ष्या में जलकर भस्म हो जाती है । गजराज भी शर्मिष्ठा की चाल देखकर लज्जित हो जाते हैं । मृग उसके लोचनों को देखकर पलकें झपकाना भूल जाते हैं । शर्मिष्ठा के रक्तिम ओष्ठ देखकर वृन्त पुष्प भी लाज से भूमि में गढ़ जाता है । इसके अतिरिक्त वह उसकी मधुर मुस्कान, हाव भाव आदि का प्रशस्ति गान करने लगा । राजशेखर के द्वारा जिस प्रकार शर्मिष्ठा के रूप यौवन का वर्णन किया जा रहा था , ययाति का मन शर्मिष्ठा की ओर उसी प्रकार खिंचा जा रहा था । रथ की गति से भी तीव्र गति से ययाति का मन शर्मिष्ठा की ओर दौड़ रहा था । ययाति ने अपनी कल्पनाओं में शर्मिष्ठा की एक मनोहर आकृति बना ली थी । उस काल्पनिक आकृति को देख देखकर उसके मुख पर आनंददायिनी मुस्कान नाचने लगी थी । वह मन ही मन शर्मिष्ठा के अधर रस का पान करने लगा । अब तो उसकी बांहें उसे कसने को अधीर होने लगी थीं । 

सौन्दर्य और पराक्रम का उसी तरह मेल है जैसे चोली अंर दामन का । बादल और बिजली का । सरिता और सागर का । सौन्दर्य के बिना पराक्रम अपूर्ण है और पराक्रम की मंजिल तो सौन्दर्य है ही । ययाति जैसे अद्वितीय पराक्रमी को अतुल्य सौन्दर्य की कामना होना स्वाभाविक ही है । पराक्रम को शांति भी सौन्दर्य के आगोश में ही मिलती है, अन्य कहीं नहीं । राजशेखर ययाति के मन को शर्मिष्ठा में और दृढ कर रहा था । ययाति चाहने लगा था कि शर्मिष्ठा के दर्शन अब शीघ्र हो जायें तो उसके मन के तपते मरुस्थल की प्यास थोड़ी बुझ जाये । एक एक पल उसके लिए अब एक एक युग जैसा लगने लगा था । 

रथ घने वन में पहुंच गया था । विशालकाय वृक्षों के कारण पथ दिखाई नहीं दे रहा था । रथ के चारों ओर जंगली जीव जंतु विचर रहे थे । ययाति ने तरकश से एक तीर निकाल कर अपने धनुष पर संधान किया । धनुष की टंकार सुनकर समस्त जीव भाग गये । अचानक उसे अपने सामने मृगों का एक झुण्ड दिखाई दिया । ययाति ने रथवान को मृगों की दिशा में रथ तेज चलाने का निर्देश दे दिया । रथवान ने चार मृगों के पीछे रथ दौड़ा दिया । तेज और तेज , वायु की गति से भी तेज । मृगों के पीछे रथ दौड़ा जा रहा था और ययाति का मन शर्मिष्ठा और मृगों के द्वंद्व में उलझा हुआ था । आंखें मृगों पर टिकी थी और मन शर्मिष्ठा के हृदय की गहराइयों में बैठा था । मन और बुद्धि की एकाग्रता नहीं हो तो सटीक निशाना नहीं लगता है । ययाति के साथ भी ऐसा ही है रहा था । उसने एक एक कर चार बाण मारे किन्तु उनमें से एक भी बाण लक्ष्य पर नहीं लगा । उसकी इस असफलता पर राजशेखर व्यंग्य कसने लगा 
"सम्राट का मन तो राजकुमारी में लगा हुआ है , तो अब उन्हें मृग कहां नजर आयेंगे ? अब तो चारों ओर राजकुमारी शर्मिष्ठा ही नजर आ रही होगी ? क्यों राजन" ? 
ययाति राजशेखर के व्यंग्य पर झेंप गया था । 

रथ तेज गति से दौड़ रहा था । रथवान यद्यपि बहुत दक्षता के साथ रथ चला रहा था किन्तु रास्ता बहुत ऊबड़ खाबड़ था इसलिए रथ पूरा हिल रहा था । इसी बीच राजशेखर रथ से न जाने कहां "टपक" गये , ययाति को पता ही नहीं चला । सामने अचानक एक बड़ा गड्ढा आ गया और रथ उस गड्ढे में गिरकर चकनाचूर हो गया । ययाति भी पृथ्वी पर आ गिरा । इतने में एक सिंह ने ययाति पर आक्रमण कर दिया । सिंह गुर्राहट के साथ ययाति पर कूदा लेकिन ययाति ने "ध्वनि भेदी बाण से उसका काम तमाम कर दिया । ध्वनि भेदी विद्या ने आज उसकी रक्षा की थी । अपनी सफलता पर ययाति को गर्व होने लगा । 

रथ टूट चुका था और आगे जाने के योग्य नहीं रह गया था । उसने रथ में से एक अश्व खोला और उस पर बैठकर वह आगे बढ़ने लगा । उसने शर्मिष्ठा को देखने का पक्का निर्णय कर लिया था । "अब चाहे कुछ भी हो जाये , शर्मिष्ठा से मिलकर ही चैन लेगा वह । उसे देखे बिना अब चैन कैसे आयेगा" ? ऐसा सोचते हुए वह आगे बढता चला गया । 

आगे चलने पर उसे "बचाओ बचाओ" की आवाज सुनाई दी । यह आवाज किसी स्त्री की थी । एक इंसान होने के नाते उसका कर्तव्य था कि वह उसकी सहायता करे । पर ययाति तो सम्राट भी था इसलिए उसका दायित्व और गुरुतर हो गया था । वह आवाज की दिशा की ओर बढता चला गया । उसने देखा कि आवाज एक कुंए से आ रही है तो उसने कुंए की मुंडेर पर खड़े होकर कुंए में झांका । कुंए में एक अनिन्द्य सुन्दरी को अनावृत अवस्था में देखकर वह आश्चर्य चकित रह गया । ययाति एक संस्कारवान युवक था इसलिए वह एक निर्वस्त्र युवती को कैसे देख सकता था ? ययाति ने अपनी दृष्टि उस युवती के बदन से हटा ली और उसने तुरंत अपना उत्तरीय निकाल कर युवती की ओर कुंए में फेंक दिया । युवती ने उस उत्तरीय को तुरंत लपक लिया और उसे अपने बदन पर लपेट लिया । इस कृत्य से उसका बदन आवृत हो गया था इससे अब उस युवती के चेहरे से लाज का आवरण थोड़ा कम हो गया था । ययाति उसके सौन्दर्य में खो गया । "कौन हो सकती है यह सुन्दरी ? जिस तरह से राजशेखर ने शर्मिष्ठा के सौन्दर्य का वर्णन किया था , यह युवती वही प्रतीत हो रही है" ।  ययाति सोचने लगा । 

उसे याद आया कि उसने एक बार गंधमादन पर्वत पर घृताची नामक एक देवांगना को देखा था । कितना अद्भुत सौन्दर्य था उसका ! उसे देखकर वह हतप्रभ रह गया था । इससे पूर्व उसने ऐसा सौन्दर्य कभी नहीं देखा था । घृताची भी ययाति के आभामंडल को देखकर चौंक गई थी और वह ययाति के व्यक्तित्व पर मर मिट गई थी । उसके गठीले बदन को देखकर घृताची कामातुर हो गई थी । उसने अपनी सखियों के समक्ष ही ययाति से प्रणय निवेदन कर दिया और उससे "रति सुख" की याचना करने लगी । ययाति एक ब्रह्मचारी था अत: उसने घृताची का "कामसुख" का निवेदन अस्वीकार कर दिया । घृताची ने शास्त्रों की दुहाई देते हुए कहा था "यदि एक स्त्री रति सुख का निवेदन किसी पुरुष से करे तो उस पुरुष का दायित्व है कि वह उसकी इच्छा पूर्ति करे । अत: हे पुरुष सिंह , मैं अत्यंत कामातुर होकर आपसे कामसुख प्रदान करने की प्रार्थना करती हूं" । 

घृताची के इस निवेदन पर भी ययाति अपने दृढ़संकल्प से नहीं डिगा तो घृताची ने उसे श्राप दे दिया कि भविष्य में वह कामान्ध होकर स्त्रियों के आगे पीछे उसी तरह घूमेगा जिस तरह एक नर पशु मादा पशु के पीछे पीछे घूमता है । 

ययाति सोचने लगा कि कुंए में गिरी हुई यह युवती तो घृताची जैसी अप्सरा से भी अधिक सुन्दर है । हो सकता है यह कोई गन्धर्व कन्या हो ? जब उस युवती ने अपना परिचय दिया और ययाति ने उसे कुंए से बाहर निकाला तो उसे ज्ञात हुआ कि वह कन्या शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी है । उसका परिचय जानकर ययाति दंग रह गया । एक नारी किसी अप्सरा से भी सुन्दर हो सकती है , यह सोचने लगा ।  

देवयानी ने उससे विवाह करने का प्रस्ताव कर दिया । यह और भी आश्चर्यजनक था । देवयानी एक ब्राह्मण कन्या थी और ययाति एक क्षत्रिय । यदि उन दोनों का विवाह होता तो यह एक "प्रतिलोम" विवाह होता । शास्त्रों में यद्यपि प्रतिलोम विवाह अस्वीकृत नहीं था किन्तु बहुत अधिक प्रचलित भी नहीं था । ययाति इस प्रस्ताव से प्रसन्न हो गया । देवयानी जैसी अनिन्द्य सुन्दरी और शुक्राचार्य की पुत्री को अपनी पत्नी बनाकर कौन व्यक्ति अपने भाग्य पर गर्व नहीं करेगा ? फिर, विवाह का प्रस्ताव स्वयं देवयानी ने रखा था ययाति ने नहीं । इस सुखद अनुभूति के कारण ययाति कुछ पलों के लिए शर्मिष्ठा को भूल गया था । 

श्री हरि 
11.8.23 
 

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